सचमुच जमाना बहुत बदल गया है ना...
देखो ना तभी तो जो चीजें अभी तक नीति नियंताओं ने सोची भी नहीं है वो इस समाज में देखी जा रहीं हैं।
कल यू.पी के प्रतापगढ़ में एक अधिवक्ता ने फांसी लगाकर अपनी जान दे दी, क्या सोच रहें हैं कि वो कमजोर मानसिकता का रहा होगा और जिन्दगी की जंग हार गया तो आप गलत हैं क्योंकि वजह तो कुछ ऐसी थी कि जिस पर शायद ये समाज उसके चले जाने के बाद भी यकीन नहीं करना चाहेगा और करेगा भी तो इसके बाद चुप्पी साध लेगा।
अधिवक्ता आलोक त्रिपाठी सात पेज का सुसाइड नोट छोड़ं गया है जो हमें एक नई क्रान्ति के लिए प्रेरित करता है। उसने अपनी का जिम्मेदार अपनी पत्नी और ससुर पर लगाया है, उसने ये भी लिखा कि शादी के बाद उसने लगातार तालमेल बनाने की कोशिश की लेकिन आखिर वो हार गया। और हो सकता है महिलांओं को ये बात अच्छी न लगे लेकिन इससे इस सच को झूठ तो नहीं बनाया जा सकता।
वह अपनी पत्नी पर उसके पिता से संबन्धो को लेकर तनाव में चल रहा था और इसी मुद्दे पर एक बार पंचायत भी हुई थी लेकिन फिर भी कोई बात नहीं बनी। अब यहां और तफशील नहीं दी जा रही है क्योंकि उससे बाप और बेटी के रिश्ते एक बार फिर से शर्मसार होंगे लेकिन एक बात जरूर ध्यान रहे कि सहमति दोनों की थी अकेले बाप की गलती नहीं है जैसा कि अक्सर सुनते होंगे।
उसने अपने ससुर और पत्नी के खिलाफ कानूनी कार्वाई की मांग की है और उन पर पुरुष उत्पीड़न को आरोप लगाया है और साथ अपनी जायदाद का वारिश अपने भाइयों को बनाया है न कि अपने बच्चे को।
कब आंख खुलेगी हमारी और कब हम वो चश्मा उतारने में सफल होंगे जिससे कि हमें तथ्यों को सिर्फ एक ही पहलू से देख सकते हैं। ऐसा क्यों लगता है कि उत्पीड़न सिर्फ महिलाओं का ही हो सकता है।
ये बाते सिर्फ मैं नहीं बल्कि आलोक ने अपनी सुसाइड नोट में भी इन्हीं चीजों की ओर इशारा किया है और कहा है पुरुषों को महिलाओ से बचाओ...
उनके उत्पीड़न से बचाओ...
आखिर कब समझ पाएंगे हम आलोक जैसों को...
क्या उसे बचाया नहीं जा सकता था या फिर आगे किसी और को ऐसी मौत से बचाया नहीं जा सकता ?
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